वृद्धावस्था की बजी घंटी
करते करते बात अचानक क्या कहना है
अक्सर यह भूल जाती हूं,
अभी अभी हाथ में ही तो थी जो वस्तु
कहां रखी यह भूल जाती हूं।
पहले आराम से जितना कर लेती थी श्रम,
अब क्यों नहीं उतना कर पाती हूं?
सह लेती थी बहादुरी से पीड़ा- दर्द जितना,
अब स्वयं को थोड़ा निर्बल पाती हूं।
चलने-फिरने की स्फूर्ति जो थी तन में,
शने: शने: उसे घटते हुए पाती हूं।
हुआ अहसास कि बढ़ चली बुढ़ापे की ओर,
प्रारंभ कब यह हुआ समझ नहीं पातीं हूं।
झूम उठी थी हर्ष से नानी दादी जब बन गयी,
नाती पोते को देख खुशी से फूल जाती हूं।
आहट न सुनी मैंने पर घंटी तभी बज गई थी,
वृद्धावस्था प्रारंभ हुई संकोच में पड़ जाती हूं।
पलट कर पढ़ने पर शुरू से जीवन के पन्नों को,
कभी खुशी कभी दु:ख से आंखें नम पाती हूं।
जो कुछ भी पाया मीठा-खट्टा , कृतज्ञ हूं सभी के लिए,
संतृप्त हृदय से अपना शीश नवाती हूं।
बढ़ चलो उम्र की गरिमा में रहकर,सार है यही जीवन का,
स्वस्थ रहें तन-मन इसी यत्न में जुट जाती हूं।
जितना सा है जीवन के पिटारे में, केवल अनुभव हैं मेरे,
धन्य जीवन होगा यदि काम किसीके आ जाती हूं।।
विमला
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